Monday, July 31, 2017

संत शिरोमणि रैदास (रविदास) जी BIOGRAPHY Ravidas ji

                                                      रैदास RAIDAS



                                      "मन चंगा तो कठौती में गंगा।"
रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 (इनका जन्म कुछ विद्वान 1398 में हुआ भी बताते हैं) को बनारस में हुआ था। रैदास कबीर के समकालीन हैं।


रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था।
मध्ययुगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कबीर ने 'संतन में रविदास' कहकर इन्हें मान्यता दी है। 
संत रविदास को कभी संत, गुरु और कभी-कभी रविदास, रायदास और रुहिदास भी कहा जाता था.
गुरु रविदास जी के भक्ति गीतों में सिक्ख साहित्य, गुरु ग्रन्थ साहिब शामिल है. पञ्च वाणी की दादूपंथी परंपरा में भी गुरु रविदास जी की बहोत सी कविताये शामिल है. गुरु रविदास ने समाज से सामाजिक भेदभाव और जाती प्रथा और लिंग भेद को हटाने का बहोत प्रभाव पड़ा. उनके अनुसार हर एक समाज में सामाजिक स्वतंत्रता का होना बहोत जरुरी है.

मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का बिल्कुल भी विश्वास न था।रैदास ने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है।रविदास जी के भक्ति गीतों ने भक्ति अभियान पर एक आकर्षक छाप भी छोड़ी थी. वे एक कवी-संत, सामाजिक सुधारक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे. रविदास 21 वि शताब्दी में गुरु रविदास जी धर्म के संस्थापक थे.
गुरु रविदास ने गुरु नानक देव की प्रार्थना पर पुरानी मनुलिपि को दान करने का निर्णय लिया. उनकी कविताओ का संग्रह श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में देखा जा सकता है. बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने इसका संकलन किया था, जो सिक्खो के पाँचवे गुरु थे. सिक्खो की धार्मिक किताब गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरु रविदास के 41 छन्दों का समावेश है I

रैदास के पद
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै 'रैदासा॥


।। राग आसा।। 
  



ऐसी मेरी जाति भिख्यात चमारं। 
हिरदै राम गौब्यंद गुन सारं।। टेक।। 
सुरसुरी जल लीया क्रित बारूणी रे, जैसे संत जन करता नहीं पांन। 
सुरा अपवित्र नित गंग जल मांनियै, सुरसुरी मिलत नहीं होत आंन।।१।। 
ततकरा अपवित्र करि मांनियैं, जैसें कागदगर करत बिचारं। 
भगत भगवंत जब ऊपरैं लेखियैं, तब पूजियै करि नमसकारं।।२।। 
अनेक अधम जीव नांम गुण उधरे, पतित पांवन भये परसि सारं। 
भणत रैदास ररंकार गुण गावतां, संत साधू भये सहजि पारं।।३।।
नरहरि चंचल मति मोरी। 
कैसैं भगति करौ रांम तोरी।। टेक।। 
तू कोहि देखै हूँ तोहि देखैं, प्रीती परस्पर होई। 
तू मोहि देखै हौं तोहि न देखौं, इहि मति सब बुधि खोई।।१।। 
सब घट अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत ही नहीं जांनां। 
गुन सब तोर मोर सब औगुन, क्रित उपगार न मांनां।।२।। 
मैं तैं तोरि मोरी असमझ सों, कैसे करि निसतारा। 
कहै रैदास कृश्न करुणांमैं, जै जै जगत अधारा।।३।।

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
-रैदास

रैदास की साखियाँ
अबिगत नाथ निरंजन देवा।
मैं का जांनूं तुम्हारी सेवा।। टेक।।  
बांधू न बंधन छांऊं न छाया, 
तुमहीं सेऊं निरंजन राया।।1।।

चरन पताल सीस असमांना, 
सो ठाकुर कैसैं संपटि समांना।।2।।

सिव सनिकादिक अंत न पाया, 
खोजत ब्रह्मा जनम गवाया।।3।।
  तोडूं न पाती पूजौं न देवा,
सहज समाधि करौं हरि सेवा।।4।।

नख प्रसेद जाकै सुरसुरी धारा, 
रोमावली अठारह भारा।।5।।

चारि बेद जाकै सुमृत सासा, 
भगति हेत गावै रैदासा।।6।।  

मन चंगा तो कठौती में गंगा।"

"गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी।
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी।।"
"जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।"
"रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।"
"कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।"
"कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।"
"हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।"
"वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।"
"विष को प्याला राना जी मिलाय द्यो मेरथानी ने पाये।
कर चरणामित् पी गयी रे, गुण गोविन्द गाये।।"
"हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।"
"चारि बेद जाकै सुमृत सासा।
भगति हेत गावै रैदासा।।"
"सिव सनिकादिक अंत न पाया।
"खोजत ब्रह्मा जनम गवाया।।"
"बांधू न बंधन छांऊं न छाया।
तुमहीं सेऊं निरंजन राया।।"
"चरन पताल सीस असमांना।
"सो ठाकुर कैसैं संपटि समांना।।"
"तोडूं न पाती पूजौं न देवा।
सहज समाधि करौं हरि सेवा।।"
"नख प्रसेद जाकै सुरसुरी धारा।
रोमावली अठारह भारा।।"


आज भी सन्त रविदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं. उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है. विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं. इन्हीं गुणों के कारण संत रविदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं. 

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