आरक्षण पर एक कविता
अजब निराले लोग देश में,
तख्ती अपनी टांग रहे ,
और हमे भिखारी कहने वाले ,
आज भीख हैं माँग रहे ,
जिनको आरक्षण वाले वो बोल यहाँ न भाते हों ,
जो आरक्षण विरोधी जैसे गीत सदा ही गाते हों ,
आरक्षण अधिकार हमारा हमने कीमत चुकाई है ,
मेहनत का ये फल है मिला ,खैरात न हमने पाई है ,
हमने सदियों से माटी को माँ जैसा सम्मान दिया ,
खून से अपने सींच सींच कर ऊँचा इसका मान किया ,
आरक्षण जो पाना है तो ,झाड़ू बांधे आओ जी ,
सदियों से हमने खाई है ,तुम भी झूठन खाओ जी ,
अजब निराले लोग देश में,
तख्ती अपनी टांग रहे,
हमे भिखारी कहने वाले,
आज भीख हैं माँग रहे,
ताड़न के अधिकारी हम हैं ,तुमने ही बतलाया था,
जात पात का भेदभाव ,तुमने ही सिखलाया था ,
अपने और हमारे, बीच के अंतर को. तुम भरवा दो ,
अपनी माँ बहनो से भी तुम घर घर पोंछा करवा दो,
आरक्षण का तीर अगर जो पुरा काल में तन जाता ,
एकलव्य का तीर हमारी अमिट निशानी बन जाता ,
हम एकलव्य के वंशज हैं ,समर्पण में अंगूठा कटाना जानते हैं ,
भौंकते हुए कुत्ते के मुँह में तीर मारकर उसे शांत कराना जानते हैं ,
...
हम जो जागे तुम वो अपना वंश तक न पाओगे ,
अबकी जो हुंकार भरी तो मिटटी में मिल जाओगे ,
अभी तलक तो अपना एक अम्बेडकर ही भरी है ,
लाखों युवाओ में बस्ती भीम सी चिंगारी है ,
68 सालों का इतिहास बदल ही जायेगा ,
भीमराव जा दूजा कोई जब भारत में आ जायेगा ,
मानो उस दिन राजा अपना दिल्ली गद्दी पायेगा ,
.........
संविधान की धारा ये तिल तिल करके रोती हो,
नित्य नई संसोधन वाली सोच उसी पर होती है ,
घात करे जो संविधान पर उसको कातिल कौन है ,
इन सब सवालो पर दिल्ली अपनी मौन है,
घात करे जो संविधान पर उसकोयही पर रोक दो ,
बाबा भीम की जय बोलो और सीधा उसको फोड़ दो ,
हम बदले हैं युग बदला है नई सोच को बदलो तुम ,
देश में बैठे गद्दारों को अब बहार निकालो तुम ,
अंधी बेहरी परपाटी में ऐसा कोई खटका दो ,
और भीम मुर्दाबाद कहे तो सीधे फांसी लटका दो।
--- मंजीत सिंह अवतार
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