Sunday, May 17, 2020

बाबासाहेब ने भगत सिंह की फांसी क्यों नही रुकवाई?

FAKE NEWS : बाबासाहेब ने भगत सिंह की फांसी क्यों नही रुकवाई?


23 मार्च को देश में शहीद दिवस मनाया जाता है। 1931 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर चढ़ाया गया था। हालांकि वैलेंटाइन डे का विरोध करने वालों ने सोशल मीडिया के माध्यम से 14 फरवरी को ही शहीद दिवस मना चुके हैं। खैर! मुददा यह है कि पिछले कई सालों से सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण इसका दुरुपयोग भी खूब हो रहा तो लोग सवाल भी पूछ बैठे कि यदि गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, अम्बेडकर आदि इतने बड़े वकील थे तो उन्होंने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए पैरवी क्यों नही की?
सवाल व्यंग्य के रूप में हो सकता है, नफरत या आक्रोश में हो सकता है या फिर जिज्ञासावश भी हो सकता है मगर सवाल प्रथम दृष्टया उचित लगता है। मगर समस्या यह है कि हम तुलना कहाँ से शुरू करते हैं? आजकल गांधी और अम्बेडकर दोनों के सिद्धांत भारतीय राजनीति में मोहरे की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं जबकि समकालीन होते हुए इन दोनों में छत्तीस् का आंकड़ा था और आज दोनों एक ही निशाने से देखे जा रहे हैं। जिस रूप में सवाल उठते हैं हमे उसी रूप में तुलना समझनी होगी खासकर भगत सिंह, अम्बेडकर के मध्य।
डॉ अम्बेडकर जब स्कूल जाते थे तो स्कूल के बाहर दरबाजे के पास बैठकर पढ़ते थे जबकि गांधी व भगत सिंह जैसा कोई भी नेता, क्रन्तिकारी के साथ ऐसा बर्ताव नही हुआ। डॉ अम्बेडकर जब नौकरी करने बड़ोदा गये तो उन्हें किराये पर होटल, धर्मशालाएं, कमरे नही मिले। डॉ अम्बेडकर जब सिडनम कॉलेज में प्रोफेसर बने तो बच्चे उनसे पढ़ने को राजी नही हुए। आप सोचेंगे कि यह समस्या का फांसी वाले सवाल से क्या मतलब? जब आप प्रत्येक महापुरुष की कहानी नही पढोगे तो उसको समझना भी मुश्किल होता है इसलिए सवाल बनाने उठने से पहले उसकी पूरी जानकारी अवश्य लेनी चाहिए और आज के समय में यह जरूरी भी है।
अब मुख्य सवाल पर आते हैं। जून 1923 से बाबा साहेब ने वकालत का काम शुरू किया लेकिन उन्हें बार काउंसिल में भी बैठने को जगह नही दी गई इसलिए एक मि0 जिनावाला नाम के व्यक्ति की सहायता बामुश्किल बैठने का स्थान मिला मगर समस्या यह हुई कि जिसे भी यह पता चलता था कि डॉ अम्बेडकर एक अछूत जाति से हैं वे छूत की बीमारी लगने की डर से उन्हें केस नही देते थे। एक गैर ब्राह्मण अपना केस हार जाने के बाद बाबा साहेब के पास आया और बाबा साहेब ने उस केस को जीत लिया तब बाबा साहेब की ख्याति बढ़ने लगी लेकिन वकालत उनकी रोजी रोटी का साधन नही बल्कि समाज सेवा के रूप में रह गया। जब 1930-31 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन हुआ तबतक पुरे देश से अछूत जातियों से एकमात्र बैरिस्टर बाबा साहेब थे। आगे जातिवाद के चलते उन्हें ज्यादा केस नही मिले इसलिए उन्होंने बाटली बॉयज अकॉउंटेंसी ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में लेक्चरर का पद संभाला।
यहाँ मैंने इस बात पर प्रकाश डालने की कोशिश की कि जिस देश में छूने मात्र से लोग बीमार और धर्म भृष्ट होने का डर पालते थे क्या वे भगत सिंह का केस लड़ सकते थे? भगत सिंह का केस लाहौर में चल रहा था जबकि डॉ अम्बेडकर बम्बई और गांधी आदि दिल्ली में थे। भगत सिंह के केस की पैरवी आसिफ अली कर रहे थे जो अमेरिका में भारत के प्रथम राजदूत भी रहे, इसके अलावा ऑस्टिया, स्विट्जरलैंड आदि में भी राजदूत रहे हैं। जबकि भगत सिंह के खिलाफ और अंग्रेजों की तरफ से पैरवी करने वाले सूर्य नारायण शर्मा थे जो आरएसएस संस्थापक गोवलकर के बहुत अच्छे मित्र भी थे।
अब बात गांधीजी की करते हैं तो आपको बता दूं कि गांधीजी व कांग्रेस भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को बचा जरूर सकते थे मगर उनकी भगत सिंह से कोई दुश्मनी नही थी। गांधी को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी और भगत सिंह में वैचारिक मतभेद था। वे केवल अपने सिंद्धान्तों की वजह से खामोश थे। गांधी जी धर्म, ईश्वर, अहिंसा के समर्थक थे जबकि भगत सिंह कट्टर नास्तिक और कट्टर वामपंथी विचारधारा के थे जैसा कि भगत सिंह की किताब "मैं नास्तिक क्यों हूँ"से पता चलता है। बस इन्हीं विचारों ने इन दोनों को एकसाथ नही आने दिया। कुछ लोग गांधी को कसूरवार मानते हैं और इसी वजह से वे गोडसे के समर्थन में भी खड़े हो जाते हैं जबकि गोडसे और सावरकर किस विचार के थे यह भी स्मझनता आवश्यक है।
जिन्हें लगता है कि देश, धर्म, सभ्यता, संस्कृति की खातिर गोडसे ने गांधी को मारकर सही किया उन्हें इतना भी अवश्य स्मझनता चाहिए कि सावरकर को आजकल जिस रूप में पेश किया जा रहा वह केवल एक हवाबाजी है। 1911 को जब सावरकर को अंडमान जेल में 50 वर्ष की सजा का शुरू हुई थी तब सावरकर ने अंग्रेज सरकार को पत्र लिखकर कहा था कि यदि सरकार मुझे छोड़ देती है तो मैं भारत की आजादी की लड़ाई छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार के प्रति वफादार रहूंगा। सावरकर ने ऐसी याचिकाएं 1913, 1921 व 1924 में भी लगाई हैं। वहीँ दूसरी तरफ भगत सिंह के शब्दों पर भी गौर किया जाये। भगत सिंह ने अंग्रेजी सरकार से कहा था कि उनके साथ राजनितिक बंदी जैसा व्यवःहार किया जाय और फांसी देने की बजाय गोलियों से भुना जाय।
। इस देश में हजारों की तादाद में वकील और नेता थे जो तब नजर नही आये और आज उन्ही के वंशज पूछते हैं कि फांसी क्यों नही रुकवाई? पाकिस्तान के एक वकील इम्तियाज कुरैशी ने 2013 में भगत सिंह की केस को दोबारा खुलवाया है। अब जिसकी पैरवी उनके वालिद अब्दुल रशीद कर रहे हैं।
2014 में अब्दुल ने एफआईआर की कॉपी मांगी तो पता चला कि एफआईआर में भगत सिंह का नाम ही नही है उन्हे रजिस्टर के आधार पर फांसी दी गई। वकील अब्दुल राशिद का कहना है कि भगत सिंह आज़ादी के पहले के शहीद है और हमारे आदर्श भी, उन्होंने कहा है कि जिस तरह जलियांवाला भाग के लिए ब्रिटिश महारानी ने माफ़ी मांगी है ठीक उसी तरह भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी पर उन्हें माफ़ी मांगनी होंगी।


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