Monday, July 31, 2017

मध्यप्रदेश में ग्रामीण अभिशासन

                                     मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था

राज्य में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था है। जिला स्तर पर जिला पंचायत, जनपद स्तर पर जनपद पंचायत की व्यवस्था की गई है। गांव के स्तर पर ग्रामसभा की व्यवस्था है और दो-तीन (या कहीं-कहीं) ग्रामसभा यानी गांवों को मिलाकर पंचायतों का गठन किया गया है। ग्राम पंचायतों के गठन के लिये कुल मिलाकर एक हजार की आबादी होना जरूरी है। पंचायत में एक सरपंच, एक उपसरपंच और हर वार्ड से एक पंच का चुनाव गांव / गांव के मतदाता करते हैं। सरपंच का चुनाव सभी मतदाता सीधे मतदान करके करते हैं। पंचायती राज व्यवस्था में बदलाव और परिवर्तनों का दौर बहुत नियमित रूप से चलता रहा है। पहले की व्यवस्था में ग्रामसभा में कानूनी रूप से आठ समितियाँ (ग्राम विकास, संपदा, कृषि, स्वास्थ्य, ग्रामरक्षा, षिक्षा, न्याय, अधोसंरचना) गठित की जाती थी। इन समितियों के 12 तक सदस्य हो सकते थे। यानी हर गांव में 96 तक लोग किसी न किसी समिति के सदस्य हो सकते थे। यह व्यवस्था बहुत सफल होती नहीं दिखी क्योंकि वास्तव में सरकार के स्तर पर सोची गई व्यवस्था को गांव के लोग पालने के लिये मजबूर थे। कई सालों में गांव के लोगों को यह भी पता नहीं चल पाया कि वे कौन-सी समिति के सदस्य हैं; समिति की सक्रियता तो बहुत दूर की बात ही रही। 
राज्य में सत्ताा बदली तो विकेन्द्रीकरण का रूप भी बदल गया। अब आठ समितियों को हटाकर दो समितियाँ बनाने का नियम लागू कर दिया गया। पहली समिति ग्राम विकास समिति और दूसरी ग्राम निर्माण समिति। यह परिवर्तन बहुत विवादों में रहा क्योंकि सरकार ने तय किया कि ग्राम निर्माण समिति का अध्यक्ष और पंचायत का सचिव को चैक पर हस्ताक्षर कर धन का आहरण करने का अधिकार होगा। सरपंच को केवल राजनैतिक मुखिया ही रहने दिया गया। इस पर सरपंचों ने अपने-अपनेपदछोड़देनेकीधमकियाँतकदीं।
पंचायतों को संसाधन

पंचायतों - ग्रामसभा को दो स्रोतों से आमदनी होने की व्यवस्था है। एक व्यवस्था तो है राज्य और केन्द्र सरकार से विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत उन्हें धन प्राप्त हो और दूसरी व्यवस्था है स्वयं के स्थानीय संसाधन विकसित करना। अधिकार और दायित्व को यदि तुलनात्मक नजरिये से देखा जाये तो पता चलता है कि पंचायतों को जितने अधिकार दिये गये हैं उनके क्रियान्वयन की डोर कहीं ओर बंधी हुई है। ग्रामसभा से अपेक्षा की गई है कि वह अपने विकास के लिए स्वयं से संसाधनों की खोज करे। इसके लिए पंचायत एवं ग्राम स्वराज अधिनियम की धारा-7 के अनुसार ग्राम पंचायत भू-राजस्व, उपकर, चराई फीस, शाला भवन उपकर से धन कमाया जा सकता है। गांव के स्तर पर ग्रामीणों पर करों का बोझ डालना राजनैतिक और मानवीय दोनों ही स्तरों पर अव्यवहारिक माना जा सकता है। यह बहुत ही व्यापक अनुभव रहा है कि ग्राम पंचायतें और ग्राम सभायें इस तरह की कर नहीं लगा पाई हैं।
इसके साथ एक अनसुलझा हुआ सवाल यह है जो भी संसाधन पंचायतों के स्तर पर आते हैं उनका ग्रामसभाओं के बीच कैसे बंटवारा होगा इसके बारे में नियम और प्रक्रिया में बहुत स्पष्टता नहीं है।
पंचायतों की स्वीकार्यता
पंचायती राज व्यवस्था में यह प्रावधान किया गया है कि ग्रामसभायें गांव के विकास के लिये विचार करेंगी और प्रस्ताव पारित करके पंचायतों के जरिये जनपद और जिला पंचायत को प्रेषित करेंगी। मकसद यह है कि ग्रामसभा अपने विकास की रूपरेखा बनाये और जिला स्तरीय पंचायत उसे क्रियान्वित करने में मदद करेगी किन्तु उन प्रस्तावों पर अमल तो दूर उनकी स्वीकृति-अस्वीकृति की सूचना भी ग्रामसभा या पंचायतों को नहीं दी जाती हैं हर साल निर्धारित कामों के लिये पंचायतों को संसाधन और निर्देश दिया जाता है।
ग्रामसभा अपनी जरूरत के अनुसार सर्वसम्मति से गांव के आर्थिक और सामाजिक विकास की योजनायें बनाने के लिए सक्षम है। यह योजना प्रस्ताव के रूप में पंचायत के जरिये जनपद और पंचायत को भेजी जायेगी। ग्रामसभा को दिये गये इस अधिकार में यह सुनिश्चित नहीं किया गया है कि जनपद और जिला पंचायत इन प्रस्तावों को स्वीकार करने के लिये बाध्य है।
सरपंचों की स्थिति 

पंचायतों में सरपंच बनने के पीछे दो तरह की मंशायें हो सकती हैं; सरपंच बनने की इच्छा इसलिये भी हो सकती है कि व्यक्ति पंचायत का विकास और गांव के समुदाय को राजनैतिक नेतृत्व करना चाहता है या फिर भ्रष्टाचार की मंशा, यानी निजी स्वार्थों की पूर्ति करना। परन्तु पंचायती राज व्यवस्था वास्तविक संदर्भों में लोगों की प्रतिनिधि संस्था नहीं बन पाई है। यह केवल जिला प्रशासन की सोच को गांव में लागू करने वाली एजेंसी बनकर रह गई हैं पंचायत को कितने संसाधन किस काम के लिये मिलेंगे यह प्रशासन ही तय करता है इसलिये वह गांव की जरूरत के अनुरूप कार्य नहीं कर पाता है और फिर समुदाय की नजरों में निरर्थक नेता सिध्द होता है। बात केवल संसाधनों तक ही सीमित नहीं है। यह समझ पाना बड़ा ही कठिन है कि चुने हुये जनप्रतिनिधि को पद से हटाने का अधिकार एक प्रशासनिक अधिकारी (अनुविभागीय दण्डाधिकारी यानी एसडीएम) को कैसे दिया गया? मध्यप्रदेश के पंचायतीराज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम की धारा 40 के अन्तर्गत एसडीएम पंचायत के प्रथम नागरिक यानी सरपंच को पद से हटाने का नोटिस दे सकता है और कार्रवाई कर सकता है। क्या प्रधानमंत्री को केबिनेट सचिव या मुख्य मंत्री को मुख्य सचिव पद से हटा सकता है? मध्यप्रदेश में पिछले सात सालों में 1200सेज्यादाऐसेहीप्रकरणसामनेआयेहैं।
मध्यप्रदेश में अभी की स्थिति में 23051 सरपंच हैं जिन्हें मानदेय के रूप में 150 रूपये प्रतिमाह की राशि मिलती है और औसतन उन्हें दो बार जिला और 4 बार जनपद पंचायत जाना पड़ता है। पंचायतों में जब काम के बदले आज कार्यक्रम और ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के अन्तर्गत जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए निगरानी करते हुये सौ दिन खर्च करने पड़ते हैं परन्तु उन्हें कोई प्रोत्साहन मानदेय नहीं मिलता है। प्रदेष में व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है कि ज्यादा मेहनत और जिम्मेदारी निर्वहन करने वाले कर्मचारियों और जन प्रतिनिधियों की बुनियादी जरूरतों को नजरअंदाज किया जाता है।
अब सरपंच पंचायती राज व्यवस्था में खुद विश्वास खोने लगे हैं। पंचायतें विकास के लिये हैं और विकास के काम के लिये संसाधन लाने के लिये उन्हे कुल राशि का 15 से 20 फीसदी राशि कमीशन के रूप में देना पड़ती है। इसके बाद जब उपयंत्री मूल्यांकन करता है तो वहां भी उसे सेवाशुल्क देना होता है; क्या सरपंच यह राशि निजी खाते से चुकायेगा। मध्यप्रदेश में तो बैतूल जिले में दुखिया बाई नामक महिला सरपंच को तो आत्मदाह करना पड़ा। हरदा जिले की हनीफाबाद पंचायत की सरपंच श्रीमती गायत्री बाई ने पंचायत के विकास कार्य के लिये चार सरकारी अधिकारियों और एक जनप्रतिधि को 28 हजार रूपये की रिश्वत दी; चूंकि काम पंचायत का था इसलिये उन्होंने यह राशि लेखा खातों में दर्ज करके ग्रामसभा के सामने रख दिया। शायद यही श्रेष्ठतम विकल्प भी है।
क्षमतावृध्दि की वास्तविकता
सरपंच के प्रशिक्षण के लिये सरकारी व्यवस्था है। यह प्रशिक्षण की प्रक्रिया चुनाव के तत्काल बाद ही शुरू हो जाती है। सरपंचों को कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों के बारे में प्रशिक्षित किया जाता है परन्तु अब इन प्रशिक्षण्ाों के प्रति एक किस्म की उदासीनता बढ़ती जा रही है। जिला प्रशासन सरपंच एवं पंचायत प्रतिनिधियों का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसमें वे मुख्य कार्यपालन अधिकारी और जिला कलेक्टर के दबाव में उपस्थित होते हैं। जैसे ही वे देखते हैं कि अफसर का प्रस्थान हो गया है वैसे ही वे भी रवानगी डाल लेते हैं।
पंचायती राज व्यवस्था में नियमित रूप से इतने बड़े-बड़े बदलाव होते रहते हैं कि एक बदलाव की सूचना उन तक पहुंचती नहीं है कि दूसरा परिवर्तन हो जाता है। आमतौर पर परिवर्तन की जानकारी पंचायत सचिव तक तो पहुंच जाती है किन्तु सचिव से पंच- सरपंच तक नहीं पहुंचती है। पंचायत सचिव पंचायत में प्रशासन का प्रतिनिधित्व करते हैं और उन्हें प्रशिक्षित करके सिखाया गया है कि सूचना - जानकारी ही ताकत है इसलिये ताकत को अपने तक ही सीमित रखें।
यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि निरक्षर सरपंच और महिला सरपंच व्यवस्था की पीड़ा को ज्यादा गहराई से महसूस कर रहे हैं। इन जनप्रतिनिधियों का स्थानीय प्रभावशाली लोग, सचिव और अधिकारी बखूबी उपयोग कर रहे हैं। विदिशा की गोबरहेला पंचायत के सरपंच को इसी कारण जेल की हवा खाना पड़ी और अध्यक्ष के दबाव में एक ठेकेदार को पंचायत भवन बनाने के लिये चेक पर अंगूठा लगाकर पचास हजार रूपये का भुगतान करना पड़ा। भुगतान होने के बाद काम न होने पर सरपंच से रिकवरी हुई जिसके लिए उसे अपनी आठ बीघा जमीन बेचनी पड़ी।
जवाबदेहिता और पारदर्षिता का अभाव

कानून व्यापक स्तर पर सामाजिक अंकेक्षण की वकालत करता है किन्तु 13 सालों में इसका एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। कहीं भी ग्रामसभा ने पंचायतों से सवाल-जवाब नहीं किया, कभी भी निर्माण कार्य की गुणवत्ता और उपयोगिता का मूल्यांकन नहीं किया गया क्योंकि केवल अधिकार देना पर्याप्त नहीं है बल्कि अधिकार सम्पन्न होने का अहसास करवाना भी जरूरी है। राजनैतिक प्रतिबध्दता के अभाव में भी सवाल-जवाब की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। वास्तव में स्थानीय सत्ताा में आने के बाद आमतौर पर सरपंच और समितियों के अध्यक्ष यह सोचते हैं कि इस अवसर का लाभ अधिकारियों और बड़े नेताओं के साथ सम्बन्ध बनाने के अवसर के रूप में स्वीकार किया। वे मानते है। कि विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, पुलित इंस्पेक्टर और एसडीएम के साथ मेलजोल बढ़ाने से ज्यादा फायदा मिलेगा। गांव के स्तर पर सहभागिता, बैठक और क्षमता बढ़ाने से कुछ खास हासिल नहीं होगा। पंचायती राज में पंचायत प्रतिनिधियों और जिला-जनपद के अफसरों के बीच तालमेल बढ़ा है। जिससे गांव के सार्वजनिक हित नकारात्मक रूप से प्रभावित हुये हैं। ऐसा नहीं है कि इस मिलीभगत का पर्दाफाश नहीं हुआ। जब भी भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं सरपंच ही निशाने पर आता है क्योंकि उसे कानून अधिकार सम्पन्न होने का भ्रम पैदा करता है। दिक्कत यह भी है कि पंचायतों ने भी पारदर्शिता की व्यवस्था को स्वप्रेरणा से नहीं अपनाया। वे भी गांव की वृध्द-विधवा महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा पेंशन में अरूचि दिखाने लगे क्योंकि बजट ही इतना कम और अनियमित रूप से आवंटित होता है कि वह भी कुछ नहीं कर सकते हैं।  व्यवस्था गड़बड़ ही होती है राज्य के स्तर पर गांव के लोग हर मामले में सरपंच को ही भ्रष्टाचारी मानते हैं इस व्यवस्था ने समुदाय और जनप्रतिनिधयों को एक-दूसरेकेसामनेटकरावकीमुद्रामेंखड़ाकरदियाहै।
यह माना जाता है कि पंचायती राज लोगों की व्यवस्था है किन्तु वास्तव में यह लोगों के प्रति ही जवाबदेय नहीं है। सरकार की हर योजना समाज को कई वर्गों में बांटती है और पांचयतें उन योजनाओं का क्रियान्वयन करती हैं यानी वे सामाजिक सद्भाव के संदर्भ में नकारात्म्क भूमिका निभा रही हैं। ऐसा भी लगता है कि मानों पांचयती राज के जरिये सरकार ने समुदाय के संसाधनों तक भी अपनी मालिकाना पहुंच बढ़ा ली है। अब उन संसाधनों के उपयोग के एवज में पंचायतों को कीमत चुकाना पड़ती है। खदानों, जंगलों, पानी और खेतों पर भी उनका पूरा अधिकार नहीं रह गया है। सरकार भारी संसाधन स्रोत छीनकर छोटे-छोटे स्रोत पंचायतों को सौंप रही है। इसके परिणाम स्वरूप एक नये किस्म का विभाजन स्थानीय शासन व्यवस्था में ठोस रूप ले रहा है।
मध्यप्रदेश में जब पंचायत के तीसरे चुनावों का दौर चल रहा था तब सरकार ने एक निर्णय लिया। निर्णय यह था कि शासकीय भूमि पर अतिक्रमण करने वाला व्यक्ति पंचायत चुनाव लड़ने के लिये पात्र नहीं होगा। एक तरह से यह प्रावधान लागू करके लाखों दलित, आदिवासी दबी हुई जातियों को राजनैतिक ताकत और आजीविका को उलझन में फंसा दिया था। वास्तव में पंचायती राज व्यवस्था का तो मकसद ही समाज के वंचित तबकों की राजनैतिक ताकत को संगठित रूप से उभारना है परन्तु कई ऐसे कानूनी प्रावधान किये जाते रहे हैं जिनसे सरकार की मंशा सवालों के घेरे में आ जाती है। मध्यप्रदेश में यूं भी 15 लाख से ज्यादा लोगों को अतिक्रमणकारी के रूप में पहचाना गया है और ये अतिक्रमणकारी दलित - आदिवासी - पिछड़ावर्ग के लोग हैं, ये वो लोग हैं जो अपनी जरूरत को पूरा करने के लिये संसाधनों का उपयोग करते हैं न कि अपने लालच को पूरा करने के लिये। वास्तव में यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि संसाधनों और सम्पन्नता पर से राज्य अपना नियंत्रण कमजोर नहीं होने देगा और उसका हर कानून अपनी सत्ताा बनाये रखने के लिये होगा। जनकल्याणकारी योजनाओं के सम्बन्ध में हम एक जनकल्याणकारी राज्य की व्यवस्था में रहते हैं। इस राज्य में 55 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, खाद्य असुरक्षा और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के कारण महिलाओं का स्वास्थ्य गंभीर स्थिति में है, अब दलित आदिवासी तबकों में खूब मौते होने लगी हैं। यह सवाल जब भी उठते हैं तब एक जवाब जरूर सामने आता है और वह जवाब होता है कि सरकार आंगनबाड़ी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना और मध्यान्ह भोजन योजना इसीलिये तो चला रही है। योजनायें तो चल रही हैं पर पंचायतों को पता नहीं है क्योंकि इन योजनाओं का विश्लेषण और रूप तय करने का पंचायतों को कोई अधिकार नहीं है।
महिला नेतृत्व का अनुभव

जनसंख्या स्थिरीकरण का नारा भी सरकार ने यदि शासन व्यवस्था के भीतर कहीं लागू किया तो वह पंचायतों में ही किया। मध्यप्रदेश सरकार ने मध्यप्रदेश पंचायती राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम 2001 में यह प्रावधान किया था कि जिन लोगों के परिवार में 26 जनवरी 2001 के बाद तीसरी संतान का जन्म होगा उस परिवार का पुरूष या महिला (यानी दम्पत्तिा) पंचायत चुनाव के लिये अपात्र होंगे। इस प्रावधान के फलस्वरूप प्रदेश में जबरदस्त नेतृत्व पर प्रभाव देखने को मिले। पंचायती पद बचाने के लिये लोगों ने प्रसव छिपाये, संतानों को गोद दिया, दान दिया यहां तक कि पति-पत्नी के बीच तलाक हुआ भी बता दिया गया। इस प्रावधान का सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव महिलाओं और दबे हुये समुदायों पर पड़ा। अंतत: जुलाई 2006 में विधानसभा में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया। प्रदेश में महिलाओं के लिये सरपंच के 7707 और पंच के 123964पदआरक्षितहैं।
दलित नेतृत्व और पंचायती राज

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में यह वर्ग हमेशा ही राजनैतिक रूप से नैपथ्य में ही रहा है। पंचायतों में अनुसूचित जाति के नेतृत्व को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से आरक्षण दिया गया है। प्रदेश की कुल पंचायतों में से (कुल पंचायतें 23051) 3252 सरपंच पद अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित किये गये हैं। आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों के फलस्वरूप दलित समुदाय मुख्यधारा की सत्ताा का हिस्सा बन रहा है। यह भी सही है कि जातिवादी वर्ण व्यवस्था राजनीति में इस बदलाव को सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रही है। समय-समय पर दलित पंचायत प्रतिनिधियों के साथ छुआछूत, हिंसा, दबाव और भेदभाव के प्रकरण सामने आते रहे हैं। जब हम ग्रामीण शासन व्यवस्था, एक समुदाय आधारित व्यवस्था की बात करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह तय हो जाता है कि केवल प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिये इस असमानता को नहीं मिटाया जा सकेगा। इसके लिये हमें समाज के राजनैतिक संघर्ष में भी हस्तक्षेप करना होगा।
आदिवासी नेतृत्व और पंचायती राज

यूं तो सामान्य पंचायती राज व्यवस्था में ही आदिवासियों के लिए 3252 सरपंच पद आरक्षित हैं किन्तु संविधान आदिवासी समुदाय की स्वतंत्र अस्मिता को स्वीकार करता है। संविधान की पांचवी अनुसूची आदिवासियों को उनके अपने क्षेत्र में व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकार प्रदान करती है। वर्ष 1996 में संसद ने पंचायती राज (विस्तार) अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम के जरिये इन अधिकारों को कानूनी मान्यता भी प्रदान कर दी। यह अधिनियम संविधान में अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों में संसाधनों, न्यायप्रक्रिया, विकास और आजीविका के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार आदिवासी समुदाय को देता है। मकसद यह है कि बाहरी हस्तक्षेप से इन समुदायों की निजता और स्वतंत्रता का अतिक्रमण न होने पाये। मध्यप्रदेष में तीन जिले पूर्ण रूप से और 10 जिले आंशिक रूप से पांचवी अनुसूची में आते हैं। 
प्रावधान तो बहुत ही प्रगतिशील हैं किन्तु अनुभव एक बार फिर सिध्द करते हैं कि आदिवासियों के संदर्भ में पंचायतीराज विस्तारित अधिनियम (पेसा) का सार्थक ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। लगभग पूरा अनुसूचित क्षेत्र वन विभाग के दायरे में आता है और यहां वन विभाग संसाधनों की प्रचुरता को देखते हुये अपना अधिकार कमजोर करने में इच्छुक नहीं दिख रहा है। यह भी एक अहम् मुद्दा है कि सन् 1996मेंबनेइसकानूनकीनियमएवंप्रक्रियायेंअबतकतयनहींहोपायेंहैं। 



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