Wednesday, August 2, 2017

उज्जैन के दर्शनीय स्थल

उज्जैन के दर्शनीय स्थल

उज्जैन भारत के प्राय: मध्य भाग में 23.11 अक्षांश और 75.52 देशान्तर पर स्थित है। यह विन्ध्याचल के उत्तरी ढाल पर एक पठार पर क्षिप्रा नदी के किनारे पर बसा हुआ है। प्राचीन काल में इस प्रदेश को इसी नगरी के एक नाम अवन्ती के आधार पर अवन्ती कहा जाता था। आगे चलकर यह प्रदेश मालव या मालवा के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मध्यकालीन इतिहास में मालवा के नाम से ही इसका उल्लेख हुआ है। मालवा प्रदेश की भूमि उपजाऊ है और यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण।
उज्जैन दर्शकों के लिये अत्यन्त आकर्षक रहा है। जो भी बाहरी व्यक्ति यहाँ आया, वह इस नगरी के सौंदर्य, जलवायु, निवासियों की संस्कृति और समृद्धि के वशीभूत हो गया। देशी हो या विदेशी-सबने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। संस्कृत के कवियों ने, जिनमें प्रमुख कालिदास और बाण हैं, इसकी बहुत प्रशंसा की है। फाह्यान ने अपनी यात्रा के वर्णन में इसका उल्लेख किया है। मुगल सम्राट जहाँगीर इस प्रदेश पर मुग्ध था और एक ब्रिटिश अधिकारी डॉक्टर विलियम हंटर ने भी इस नगरी का सजीव वर्णन किया है। क्षिप्रा के कारण उज्जैन का प्राचीन इतिहास अभी काफी खोज और अध्ययन की अपेक्षा रखता है, परंतु विक्रमादित्य, प्रद्योत और उदयन को ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा काल निर्धारण की अपेक्षा में उपेक्षित नहीं किया जा सकता। यह भी निर्विवाद है कि भगवान बुद्ध के जीवनकाल से ही उज्जयिनी बौद्ध धर्म से सम्बद्ध रही है। व्यापारिक केन्द्र के रूप में तो उसकी भौगोलिक स्थिति देश के प्रमुख नगरों के लिये भी ईर्ष्या की वस्तु रही है।
उज्जयिनी का इतिहास बहुत पुराना है। यह नगरी कब बनी, किसने बसाई यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, परंतु यह एक अत्यंत प्राचीन नगरी है और गरुड़-पुराण के अनुसार भारत की सात पवित्र नगरियों में इसकी गणना है। 'अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिकापुरी, द्वारावती, चैव, सप्तैता, मोक्ष-दायका:॥'' इस श्लोक से उज्जयिनी का महत्व सहज सिद्ध है। पुराणों में उज्जयिनी का बार-बार और विशद रूप में वर्णन किया गया है। महाभारत काल में उज्जैन न केवल राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, अपितु एक विद्या केन्द्र के रूप में भी इसकी बहुत प्रसिद्धि थी। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने भाई बलराम के साथ यहीं अपने गुरु सांदीपनि से शिक्षा पायी थी। सुदामा और कृष्ण की मित्रता यहीं हुई थी। स्कन्द-पुराण में इसका विस्तार एक योजन अर्थात् चार कोस या आठ मील बताया गया है। लिंग-पुराण के अनुसार सृष्टि का प्रारंभ यहाँ से ही हुआ है। वराह पुराण में इसको शरीर का नाभिदेश और महाकालेश्वर को इसका अधिष्ठाता बताया गया है।
उज्जैन के दर्शनीय स्थानों में सबसे प्रमुख जगत्प्रसिद्ध श्री महाकाल का ऐतिहासिक मन्दिर है। पूरे भारत में शिवजी के बारह लिंग हैं, जो ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही नहीं आकाश-पाताल एवं मृत्यु लोक में से तीनों लोक में जो तीन मुख्य लिंग हैं, उनमें भी इसे सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसके बारे में कहा गया है- 'आकाशे तारकं लिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्, मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रयं न माम्यहम्॥'' महाकाल मन्दिर के अन्दर पश्चिम की ओर गणेश, उत्तर की ओर गिरिजा और पूर्व की ओर षडानन की मूर्तियाँ स्थापित हैं। भगवान शिव दक्षिण मूर्ति हैं। गर्भगृह के बाहर दक्षिण की ओर नन्दिकेश्वर है। लिंग विशाल है और सुन्दर नागवेष्टित जलाधारी में विराजमान है। महाकाल के सामने निरन्तर दो तेल और घी के दीप प्रज्जवलित रहते हैं। मन्दिर में दिन में तीन बार पूजा होती है। महाकालेश्वर के लिंग के ऊपर की मंजिल पर ओंकारेश्वर विराजमान है। महाकालेश्वर के मन्दिर की दक्षिण दिशा में वृद्धकालेश्वर और सप्तऋषि के मन्दिर हैं।
मन्दिर के नीचे सभा-मण्डप से लगा हुआ एक कुण्ड है, जिसे कोटि तीर्थ कहते हैं। इस कुण्ड से इस स्थान की शोभा और बढ़ गयी है। महाकालेश्वर के सभा-मण्डप में ही एक राम मन्दिर है। इस के पीछे अवन्तिका देवी की प्रतिमा है, जो अवन्तिका की अधिष्ठात्री देवी हैं। महाशिवरात्रि के दिन यहाँ बड़ा मेला भरता है। उस दिन रात्रि को मन्दिर में विशेष महापूजा होती है, जो दूसरे दिन सूर्योदय तक चलती है।


चौबीस खम्बा देवी


महाकालेश्वर से बाहर की ओर जाने वाले मार्ग पर एक विशाल द्वार का अवशेष दिखाई पड़ता है। इसे चौबीस खम्बा दरवाजा कहते हैं। इसे विक्रमादित्य द्वार भी कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि महाकाल के मन्दिर में प्रवेश का यही द्वार रहा होगा। प्राचीनकाल में महाकाल-वन एक बड़े कोट से घिरा हुआ था। द्वार से लगा हुआ कोट का हिस्सा गिर चुका है तथा अब केवल द्वार का अवशेष ही बाकी है।


श्री बड़े गणेशजी


महाकालेश्वर मन्दिर के निकट कोटि तीर्थ कुण्ड के कुछ ऊपर उत्तरी द्वार के पास एक अत्यन्त सुन्दर और भव्य गणेशजी की मूर्ति है। इसी से लगा हुआ पंचमुखी हनुमानजी का मन्दिर है। यहाँ आकाश के कक्षा क्रम से नवग्रह स्थापित हैं।


हरसिद्धि देवी


उज्जैन के प्राचीन और पवित्र स्थानों में हरसिद्धि देवी का मन्दिर विशेष महत्व रखता है। हरसिद्धि, वैष्णवी देवी हैं और ऐसा माना जाता है कि उज्जयिनी नगर के संरक्षण के लिये चौसठ देवियों का अखण्ड पहरा रहता है, जिनको चौसठ योगिनी कहते हैं। इनमें एक हरसिद्धि देवी हैं। शिव-पुराण के अनुसार दक्ष-यज्ञ में सती की कोहनी गिरने का यही स्थान है।
बड़े गणेशजी के सामने पश्चिम भाग में अवन्तिका के प्रसिद्ध सप्तसागर रुद्रसागर के तट पर चारों ओर परकोटे के अन्दर यह मन्दिर है। परकोटे के चारों ओर चार द्वार हैं, मन्दिर का द्वार पूर्व दिशा की ओर है। दक्षिण में एक बावड़ी बनी हुई है। बावड़ी के ऊपर एक प्राचीन कलापूर्ण स्तम्भ खण्ड है। शिव-पुराण के अनुसार मन्दिर में हरसिद्धि देवी की प्रतिमा नहीं है। मन्दिर में गर्भ-गृह में सिंहासन पर एक शिलोत्कीर्ण श्रीयंत्र स्थापित है, वही हरसिद्धि देवी कहलाती हैं। इसके पीछे श्री अन्नपूर्णाजी की मनोहर मूर्ति स्थापित है। अन्नपूर्णा के आसन के नीचे सात मूर्तियाँ दिखाई देती हैं। मन्दिर के नीचे ही रुद्रसागर तालाब है। मन्दिर के ठीक सामने दो विशाल दीप स्तम्भ बने हुए हैं। प्रतिवर्ष नवरात्रि के समय उन पर पाँच दिन तक दीप प्रज्वलित किये जाते हैं। इन पर लगभग 726 दीप जलते हैं।


रुद्रसागर का मध्यवर्ती टापू


महाकालेश्वर तथा हरसिद्धि-देवी मन्दिर के बीच में रुद्रसागर के मध्य में टापू के समान एक छोटा टीला है। एक दन्त कथा के अनुसार इस पर विक्रमादित्य का सिंहासन था। इस स्थान का जब उत्खनन किया गया, तब इस टीले के शिखर पर मुगल पद्धति का बना हुआ एक पानी का फव्वारा निकला। इसके तले में पानी आने का एक छिद्र भी है। पुरातात्विक दृष्टिकोण से इस स्थान का विशेष महत्व है।


 गोपाल मन्दिर

नगर के मध्य में बीच बाजार के बड़े चौक में विशाल गोपाल मन्दिर बना हुआ है। यह मन्दिर महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजाबाई शिन्दे ने बनवाया था। मन्दिर में गोपाल कृष्ण की श्यामवर्ण तथा राधिकाजी की गौरवर्ण संगमरमर की आकर्षक, कलापूर्ण प्रतिमाएँ हैं। मन्दिर का गर्भ-गृह और उस पर का शिखर संगमरमर का है। उसका द्वार तथा उसके अन्दर के द्वार चांदी के पत्रों से मढ़े हुए हैं। बाहर के किवाड़ चांदी के चौखट में जड़े हैं। मन्दिर में रत्नजडित एक द्वार है, कहा जाता है कि इसे शिन्दे सरकार ने गजनी की लूट से प्राप्त किया था। यहाँ पर शंकरजी की एक मूर्ति भी है। राधिकाजी की मूर्ति के पास गरुड़जी की मूर्ति है तथा शिवजी के पास बायजाबाई की मूर्ति स्थापित है। मन्दिर में मूर्तियाँ ऐसी ऊँचाई पर प्रतिष्ठित की गई हैं कि चौक से आने वालों को गोपाल-कृष्ण के दर्शन सड़क पर से ही हो जाते हैं।


गढ़कालिका देवी


यह स्थान उस भूमि में है, जहाँ पुरातन अवंती बसी हुई थी। ये मन्दिर शहर के बाहर कोई एक मील की दूरी पर एक गढ़ पर बना हुआ है। कहा जाता है कि महाकवि कालिदास की यह आराध्य देवी थीं तथा उनके तप से प्रसन्न होकर ही देवी ने उन्हें दर्शन दिया था तथा प्रसाद के रूप में उन्हें विद्वता प्राप्त हुई थी। लिंग-पुराण में इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है कि रावण के वध के बाद जब श्री रामचन्द्रजी अयोध्या लौट रहे थे, तब थोड़े विश्राम के लिये उन्होंने अवंतिका में निवास किया था तथा हरसिद्धि देवी के पश्चिम में रुद्रसागर तट पर उन्होंने वास किया था।


काल-भैरव


क्षिप्रा नदी के तट पर ही पुरानी अवन्ती के प्रमुख देव काल-भैरव का विशाल मन्दिर है। पुराणों के अष्टभैरवों में ये काल-भैरव प्रमुख हैं। चारों ओर परकोटा बना हुआ है। भैरवगढ़ की बस्ती पास ही है। काल-भैरव की मूर्ति बहुत भव्य और प्रभावशाली है। मन्दिर के अन्दर और ऊँचे प्रवेश द्वार पर नक्कारखाना है। द्वार से अन्दर प्रवेश करते ही दीप स्तंभ खड़ा दिखाई देता है। कहा जाता है कि यह मन्दिर राजा भद्रसेन द्वारा बनवाया हुआ है। यहाँ भैरव अष्टमी को यात्रा लगती है और भैरवजी की सवारी निकलती है। यह स्थान अत्यन्त ही दर्शनीय है।


अंकपात


यह वह पवित्र स्थान है जहाँ सांदीपनि ऋषि का आश्रम था और भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बन्धु बलराम और सुदामाजी के साथ चौदह विद्याओं तथा चौंसठ कलाओं का ज्ञान सम्पादन किया था। यहाँ एक पत्थर पर सौ तक अंक खुदे हुए हैं और ऐसा कहा जाता है कि ये अंक सांदीपनि ऋषि ने अपने हाथ से लिखे थे। इसी कारण इसका नाम अंकपात पड़ा। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि यहाँ अभ्यास करने के बाद पट्टियाँ धोई जाती थीं अत: इसका नाम अंकपात पड़ा।


मंगलनाथ


अंकपात के निकट क्षिप्रा तट के टीले पर मंगलनाथ का भव्य मंदिर है। मंदिर के निकट क्षिप्रा का विशाल घाट है। चौरासी महादेवों में ये तैतालीसवें महादेव हैं। जो तीर्थयात्री पंचक्रोशी को जाते हैं वे अष्ट-तीर्थ की यात्रा करके यहीं आते हैं। हर मंगलवार को यहाँ दिन भर पूजन होता है और यात्रा भी होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार उज्जैन मंगल-ग्रह की जन्म-भूमि है। अत: यहाँ सर्वदा मंगल ही होता रहता है। इसके पास ही एक सुन्दर गंगा घाट भी बना हुआ है।


 बृहस्पतिश्वर मन्दिर

सिंहस्थ पर्व से संबंधित बृहस्पतिश्वर का मंदिर भारत में केवल उज्जैन में ही है। अत: धार्मिक जनता के ह्रदय में इसका विशेष स्थान है।


अगस्त्येश्वर


यह मंदिर हरसिद्धि के पीछे ही है। यह मंदिर इतना प्राचीन है कि इसके निर्माण के संबंध में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।


चिंतामणि गणपति


यह मंदिर क्षिप्रा नदी के पार फतेहाबाद जाने वाली रेलवे लाइन पर है। यहाँ के गणपति की प्रतिमा को स्वयं-भू बतलाते हैं। यह मूर्ति बहुत सुंदर है और इसके पास ही ऋद्धि-सिद्धि हैं। मंदिर के सम्मुख एक बावड़ी पक्के पत्थर की बनी हुई है, जिसे बाणगंगा कहते हैं। इस मंदिर को रानी अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया था।


क्षीरसागर


सप्त सागर में क्षीरसागर तीसरा सागर है। यहाँ शेषशायी भगवान की प्रतिमा है। इस स्थान के संबंध में ऐसी दंतकथा प्रचलित है कि जब श्रीकृष्ण भगवान सांदीपनि ऋषि के आश्रम में आये थे तब उन्होंने यहाँ दुग्धपान किया था। कहते हैं यहाँ का जल किसी समय दुग्ध जैसा श्वेत था, इसीलिये इसका नाम क्षीरसागर पड़ा। इसके आसपास का प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यन्त ही रमणीय है।


सिद्धवट


क्षिप्रा के विशाल रम्य तट पर वट वृक्ष है। जिस प्रकार प्रयाग में अक्षय वट तथा गया में गया वट है, उसी प्रकार उज्जैन में सिद्ध वट का महत्व है। श्राद्ध कर्म के लिये इस तीर्थ का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि मुगल शासकों ने इस वृक्ष को कटवाकर लोहे के तवे मढ़वा दिये थे पर उस लोहे को भी छेदकर वृक्ष पुन: हरा-भरा हो गया। इस वट के नीचे महादेव का लिंग एवं गणपति की मूर्ति है और फर्श पर सफेद-काले पत्थर लगे हुए हैं। इसके पास जो क्षिप्रा की धारा बहती है वह पापमोचन तीर्थ कहलाती है।


भर्तृहरि की गुफा


गढ़कालिका देवी के मंदिर के निकट ही क्षिप्रा तट के ऊपरी भाग में भर्तृहरि की गुफा है। यह स्थान बड़ा शांत और सुरम्य है। भर्तृहरि सम्राट विक्रम के ज्येष्ठ भ्राता थे। उन्होंने इस गुफा में योग साधना की थी और यही उनका समाधि स्थान है। इस गुफा में जाने का दरवाजा दक्षिण में है। इस दरवाजे से प्रवेश करने पर पहले बाएँ हाथ को गोरखनाथजी की समाधि है। यहाँ से अंदर जाने पर छोटे-छोटे दक्षिणाभिमुख दो दरवाजे हैं उसमें से पहला पातालेश्वर को जाता है जो कि गुफा के समान एक बड़ी खोह जैसा है। उसके पश्चिम में एक दरवाजा है और यहीं से गुफा को रास्ता है, यहीं से सीढ़ियाँ उतरने पर बड़ा चौक मिलता है, जिसके पूर्व में भर्तृहरि की समाधि है। दक्षिण की ओर गोपीचन्द की मूर्ति है।


कालियादह महल


उज्जैन रेलवे स्टेशन से कोई छह मील दूर क्षिप्रा नदी एवं उसकी एक शाखा के बीच में एक दीप जैसी जगह पर यह महल बना हुआ है। इस महल के दक्षिण में क्षिप्रा नदी की गहराई अथाह होने से इस स्थान को कालियादह नाम दिया गया है। कालियादह नाम का एक ग्राम भी पास ही क्षिप्रा तट पर बसा हुआ है। नदी का पानी इस महल के सामने विचित्र तथा चमत्कारी ढंग से बने 52 कुण्डों में से घूमकर वापस नदी में मिल जाता है। नीचे एक तहखाना है, जहाँ बिना किसी की जानकारी के गुप्त रूप से भोजन बनाया जा सकता है। अन्दर प्रकाश का भी पर्याप्त प्रवेश है।


वेधशाला


'यन्त्र महल' या जन्तर-मन्तर के नाम से जानी जाने वाली यह वेधशाला उज्जैन के दक्षिण में क्षिप्रा नदी के दक्षिण तट के उन्नत भू-भाग पर स्थित है। प्राचीन काल में उज्जैन ज्योतिष विद्या का प्रमुख केन्द्र था।


त्रिवेणी संगम


नगर से दक्षिण की ओर त्रिवेणी संगम तीर्थ है। यहाँ नवग्रहों का अत्यन्त पुरातन स्थान है। प्रत्येक शनैश्चरी अमावस्या को हजारों यात्री यहाँ स्नान करते हैं।


बिना नींव की मस्जिद


इस मस्जिद के लिये नींव खोदने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। इसी कारण यह बिना नींव की मस्जिद के नाम से प्रसिद्ध है। यह मस्जिद मालवे के सूबेदार दिलावरखाँ गोरी ने बनवाई थी।


ख्वाजा साहब की मस्जिद


उज्जैन की मुसलमानी इमारतों में यह एक प्रसिद्ध इमारत है। इसका निर्माण मुगल बादशाहत के एक सूबेदार ख्वाजा शकेब ने करवाया था।


बोहरों का मकबरा


उज्जैन में बोहरों की काफी बस्ती है। यहाँ उनके धर्माध्यक्ष के प्रतिनिधि रहते हैं जो प्राय: उनके वंश के होते हैं। यह मकबरा उनके विशेष अधिकारी पुरुषों की कब्रों पर बना हुआ है। यह इमारत भी देखने योग्य है।


 अशोक निर्मित कारागार

भैरवजी के मंदिर से बाहर थोड़ा ऊपर की ओर केन्द्रीय कारागार है। यह किला 300 हाथ लम्बा और 30 हाथ ऊँचा है। सम्राट अशोक ने जब वे उज्जैन के राज्यपाल थे, इसका निर्माण करवाया था। अब भी यह कारागार ही है।


क्षिप्रा नदी


उज्जैन नगर क्षिप्रा नदी के पूर्व घाट पर बसा हुआ है। क्षिप्रा नदी अनेक मंदिरों, घाटों, मठों, छत्रियों आदि से लगी हुई उत्तर की ओर प्रवाहित होती है। नरसिंह घाट, राम घाट, पिशाचमोचन तीर्थ, गंगा घाट, गन्धर्वती तीर्थ, छत्री घाट आदि विशेष महत्व के हैं। गंगा दशहरे का उत्सव नौ दिन तक नदी तट पर ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में प्रतिवर्ष होता है। कार्तिकी पूर्णिमा एवं वैशाखी पूर्णिमा को यहाँ घाट पर बड़ा मेला लगता है। सिंहस्थ पर्व पर घाट पर लाखों यात्री स्नान करते हैं। क्षिप्रा के तट पर ही वीरवर दुर्गादास राठौर की ऐतिहासिक समाधि बनी हुई है। इस समाधि से कुछ आगे पत्थर की दीवार से सुरक्षित बोहरों का बाड़ा है और कुछ ही आगे ऋणमुक्त महादेव का प्रकृति कुंज में रम्य स्थान बना हुआ है। क्षिप्रा के उस पार दत्त का अखाड़ा है, जहाँ पर गुसाइयों की जमात ठहरती है। यह चारों ओर ऊँचे कोट से घिरी हुई एक छोटी गढ़ी के समान सुन्दर-सी इमारत है। इसके अलावा सिंहस्थ के अवसर पर विभिन्न सम्प्रदायों के साधुओं के ठहरने के लिये शासन की ओर से स्थान निश्चित किये जाते हैं।

अन्य दर्शनीय स्थल

अनन्तनारायण का मंदिर, महाराजबाड़ा, नागनाथ, सत्यनारायण का मंदिर, आष्टेवाले का मंदिर, रूमी का मकबरा, सती घाट, जैन मंदिर, श्रीनाथजी का ढाबा, विक्रम कीर्ति मंदिर भी दर्शनीय स्थल हैं।

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