मध्यकाल मध्यप्रदेश
हर्ष की मृत्यु के बाद सन् 648 में मध्यप्रदेश अनेक छोटे-बड़े राज्यों में बंट गया। मालवा में परमारों ने, विंध्य में चंदेलों ने और महाकौशल में कल्चुरियों की एक शाखा ने त्रिपुरा में शासन कायम किया। इस वंश के शासकों में कोमल्लदेव, युवराजदेव, कोमल्लदेव द्वितीय और गांगेयदेव ने दक्षिण कौशल तक अपनी सीमाएं बढ़ाई।
विदिशा कुछ समय तक राष्ट्रकूटों के अधीन रहा। इसके अवशेष ग्वालियर, धमनार, ग्यारसपुर आदि में पाए जाते हैं। कुछ काल तक कालयकुब्ज के गुर्जर-प्रतिहार वंश के नरेशों और दक्षिण के राष्ट्रकूटों ने भी मालवा के कुछ भागों पर शासन किया। ग्वालियर और आसपास के क्षेत्र महेंद्रपाल गड़वाल के अधीन थे। उस समय राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय ने मालवा पर हमला कर अनूप व उज्जयिनी जीता था। दसवीं सदी के लगभग मालवा में परमारों, जो राष्ट्रकूटों की एक शाखा थी, ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश में मुंज एवं भोज ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की। मुंज ने त्रिपुरा के कल्चुरियों, राजस्थान के चौहानों ,गुजरात और कर्नाटक के चालुक्यों से संघर्ष किया। मुंज संस्कृत का महान ज्ञाता एवं साहित्यकार था।
भोज ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की नीति को जारी रखा। उसने कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष् में सफलता प्राप्त की। त्रिपुरा के कल्चुरि नरेश गांगेयदेव को भी परास्त किया। लाट, कोंकण, कन्नौज आदि स्थानों के शासकों से उसने युद्ध किया। चितौड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, भेलसा और भोपाल से गोदावरी तक का क्षेत्र उसकी सीमा में था। भोज ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने भोपाल के निकट भोजसागर एवं भोजपुर नगर की स्थापना की तथा वहाँ विशाल शिव मंदिर बनवाया जिसे मध्यभारत का सोमनाथ कहा गया है।
हर्ष की मृत्यु के बाद विंध्यप्रदेश में चंदेलों ने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस वंश के प्रसिद्ध शासकों में रोहित, हर्ष, यशोवर्धन और धंग है। धंग ने महमूद गजनवी के आक्रमण के विरूद्ध अफगानिस्तान के शाही नरेश जयपाल को सैनिक सहायता दी थी। गण्ड दूसरा प्रतापी नरेश था। चंदेलों ने कान्यकुब्ज, अंग, कांची, एवं कल्युरियों से संघर्ष किया।
इस वंश का अंतिम नरेश परमादिदेव था। यह पृथ्वीराज चौहान का समकालीन था। फरिश्ता के अनुसार सन् 1202 में कालिंजर पर हमला कर ऐबक ने उसे जीता था। चंदेलों ने खजुराहों में विश्व प्रसिद्ध मंदिरों का निर्माण कराया।
सन् 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी ने चौहानों की सत्ता दिल्ली से उखाड़ फैंकी। उसने अपने सिपहसालार कुतुबुद्दीन एबन को दिल्ली का शासक नियुक्त किया। गौरी और ऐबक ने सन् 1196 में ग्वालियर के नरेश सुलक्षण पाल को हराया। उसने गौरी की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली। सन् 1200 में ऐबक ने पुन: ग्वालियर पर हमला किया। परिहारों ने ग्वालियर मुसलमानों को सौंप दिया। इल्तुतमिया ने सन् 1231-32 में ग्वालियर के मंगलदेव को हराकर विदिशा, उज्जैन, कालिंजर, चंदेरी आदि पर भी विजय प्राप्त की। उसने भेलसा और ग्वालियर में मुस्लिम गवर्नन नियुक्त किए। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा के सभी प्रमुख स्थान जीते। एन-उल-मुल्कमुल्तानी को मालवा का सूबेदार बनाया गया।
मालवा तुगलकों के भी अधीन रहा। तुगलकों के पतन के बाद मालवा में स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना दिलावर खाँ गौरी ने की। माण्डू के सुल्तानों में हुशंगशाह प्रसिद्ध हुआ। उसने होशंगाबाद नगर बसाया। मालवा के प्रसिद्ध खिलजी द्वितीय प्रमुख थे। पश्चिमी मध्यप्रदेश का एक बड़ा क्षेत्र इनके अधीन रहा।
ग्वालियर सन् 1479 में पुन: स्वतंत्र हो गया। दिल्ली सल्तनत के ये पतन के दिन थे। गढ़ा मंडला में गोंडों ने अपने राज्य की स्थापना की। उन्होंने जबलपुर एवं महाकौशल क्षेत्र अपने अधीन किए। गोंडों की शाखा ने गढ़कटंगा को अपनी राजधानी बनाई। मुस्लिम इतिहासकारों ने इनके राज्य का नाम गोंडवाना बताया है।
जादोराय इस वंश का संस्थापक था। इस वंश का दूसरा राजा संग्रामशाह था। इसके अधीन 52 गढ़ थे। जबलपुर, दमोह, सागर, सिवनी, नरसिंहपुर, मंडला, होशंगाबाद, बैतूल, छिंदवाड़ा, नागपुर और बिलासपुर आदि क्षेत्र भी इसके अधीन थे। संग्रामशाह ने सन् 1480 से 1542 तक शासन किया। इसके बाद दलपतशाह शासक बना। इस वंश को सर्वाधिक कीर्ति रानी दुर्गावती के कारण मिली। अबुलफजल ने गोंडवाना राज्य की सीमा पूर्व में रतनपुर (झारखंड), पश्चिम में रायसेन, उत्तर में पन्ना और दक्षिण में दमन सूबे तक बताई है।
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